श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 15  वा ॥

॥श्री  गणेशाय  नम:।  श्री  सरस्वत्यै  नम:।  श्रीगुरूभ्यो  नम:।  नमोजी  ओंकारा।  गणाधीशा  विघ्नहरा।  जयजयाजी  पार्वतीकुमारा।  एकदंता  नमो  नम:॥1॥स्तवन  करीते  श्रध्देने।  प्रार्थिते  तुम्हा  भक्तिने।  आळविते  कळकळीने।  द्रव  अंतरी  येउ  द्या॥2॥परब्रम्हस्वरूप  निराकार।  परी  सर्वजगा  आधार।  गुप्तस्वरूप  अवनीवर।  कलियुगी  गुरूसत्ता॥3॥घेतले  असता  पदरी  भक्ता।  गुरूच  वाहती  सर्व  चिंता।  जीवनी  करिती  निर्भय  भक्ता।  याची  कथा  परिसावी॥4॥प्रियभक्ताची  धर्मपत्नी।  कर्मभोग  छळी  तियेलागुनी।  कैसे  रक्षिले  दत्तात्रयांनी।  त्याचे  वर्णन  पुढे  असे॥5॥एके  साली  काय  झाले।  पोळयाचे  दिनी  नवल  घडले।  तांबुल  भक्षिता  त्वरीत।  झाली  ती  अत्यवस्थ॥6॥काय  घडले  न  कळे  कवणा।  परी  असह्य  होती  यातना।  जीव  घाबरे  अंतरी  जाणा।  उपाय  काही  सुचेना॥7॥हात  पाय  होती  वाकडे।  जीव  आत  आत  ओढे।  अकस्मात  ऐसे  घडे।  चिंतातूर  अंतरी॥8॥  प्रवीण  सारे  डॉटर  तज्ञ।  त्यांचे  खुंटले  सारे  यत्न।  व्यक्ति  तितया  प्रकृती  प्रमाण।  तैसेचि  डॉटरी  मत  जाणा॥9॥वेगवेगळे  रोगनिदान।  करीते  झाले  डॉटर  तज्ञ।  परी  गुण  आला  नाही।  कर्मगती  श्रेष्=  ती॥10॥  व्याव्हारीक  यत्न  संपता।  चिंताक्रांत  झाले  उभयता।  अवीसपाणी  पचेना।  निद्रा  नसे  किंचीत  नयना॥11॥असह्य  होती  यातना।  क्षीण  झाला  जीव  जाणा।  आले  श्रीगुरूसदना।  शरण  आले  चरणांप्रति॥12॥त्रिकालज्ञ  त्रयमुर्ति।  सर्व  जगाचा  अधिपती।  भक्तास  सांभाळी  योग्यरिती।  शरण  जाता  तयाशी॥13॥काय  होते  ते  विपरीत।  थांग  न  लागे  कोणा  सत्य।  त्रयमुर्ति  त्या  जाणती  सत्य।  अघटित  कृती  नशिबाची॥14॥विभुती  प्राशिली  श्रध्देने।  आराम  पडला  त्वरेने।  सांभाळीले  गुरूमाउलीने।  प्रेमभरे  तियेशी  ॥15॥विभुती  जाता  ज=री।  आराम  पडला  सत्वरी।  श्रध्दा  भक्ती  भाव  अंतरी।  तारीती  गुरूवर  तियेशी॥16॥ऐसा  भक्तिचा  महीमा  थोर।  कैसे  वर्णू  मी  पामर।  पार  होवो  भवसागर।  त्रयमुर्ति  कृपेने॥17॥जय  जय  श्री  गुरूवरा।  पूर्णब्रम्हा  अवतारा।  जगचालका  परमेश्वरा।  वंदन  तुम्हा  भक्तिभावे  ॥18॥जो  जगाचा  आधार।  गुप्तरूप  सर्वेर।  सत्ता  त्याची  त्रिभुवनावर  ।  तोचि  कलियुगी  कल्पतरू॥19॥तोचि  मायेची  साऊली।  करी  भक्ता  कृपासावली।  ते  कृपाजळ  प्राशिता  सत्वरी।  शांत  चित्ता  वाटतसे  ॥20॥हिरा  आणि  गार  देखा।  असतात  एकाच  खाणीत  देखा।  पारखी  तया  ओळखी  पहा।  तोची  प्रकार  येथे  असे  ॥21॥एक  भोग  संपता।  दुसरा  जोर  करी  त्वरीता।  त्रयमुर्ति  गुरूनाथा।  चिंता  सर्व  भक्तांची॥22॥श्रीगुरूदेवा  मायबापा।  नको  अंत  बघू  आता  ।  क्षीणले  मी  दीनानाथा  ।  व्याधीभोग  संपवी  ॥23  ॥शरीरभोग  लागला  मागे  ।  मनोविकार  जडला  वेगे  ।  व्याधी  शरीरी  बळावली  ।  जीवनी  ती  त्रस्त  झाली  ॥24  ॥  पतिचा  होता  श्रध्दाभाव  ।  अंतरी  म्हणे  रक्षिल  गुरूदेव  ।  पत्नीने  करूनी  निर्धार  ।  प्रश्न  केला  गुरूदेवा  ॥25॥  स्वरूप  ते  सगूण  ।  देखता  दिपती  नयन  ।  पूर्णपुण्याई  सुकृतावीण  ।  गुरूदर्शन  होणे  नसे  ॥26  ॥भय  पावली  ती  अंतरी  ।  काय  विचारू  खरोखरी  ।  असे  म्हणूनी  निर्धारी  ।  मागेपुढे  होत  असे  ॥27  ॥त्रिकालज्ञ  परमेर  ।  त्रयमुर्ति  सगुण  थोर  ।  जाणुनी  कामिनी  अंतर  ।  सांत्वन  तियेचे  केले  हो  ॥28  ॥काय  वदले  ते  क्षणी  ।  ऐकावी  हो  गुरूवाणी  ।  स्थिर  रहावे  गुरूवचनी  ।  साशंक  मनी  न  व्हावे  ॥29  ॥वदले  तियेशी  दत्तात्रेय  ।  रामचंद्र  गुरूराय  ।  घाबरू  नको  अंतरी  ।  प्रश्न  मनीचा  विचारी  ॥30  ॥सद्गद  झाली  ऐकून  वचन  ।  प्रश्न  करी  भाव  धरून।  म्हणे  शांत  केले  माझे  मन।  अंतरभाव  जाणूनी॥31  ॥कथिती  झाली  सर्वविकार।  ऐकते  झाले  गुरूवर।  म्हणे  शंका  सोडी  सत्वर  ।  शरीरभोग  असे  हा  ॥32॥पतीस  वदती  राम  तेव्हा।  हा  भोग  असे  जाणा।  पत्नीस  दाखवी  मानसतज्ञा।  योग्य  निदान  होण्यास॥33॥औषधोपचार  करावे।  सहाय्या  विभूतीस  न्यावे।  श्रध्दाभावे  रहावे।  रक्षण  आमुचे  निरंतर॥34  ॥श्रध्दा  =ेवूनी  गुरूवचनी।  दाखविले  मानसतज्ञी।  विभुती  सहाय्यभूत  होवूनी।  आराम  पडु  लागला॥35॥सुखी  झाली  भोगातून।  हे  असे  श्रध्देचे  महीमान।  ही  खुणगां=  अंतरी  बाणा।  गुरूप्राप्ती  पुर्वपूण्याई  जाणा॥36॥ते  दिवसा  पासूनी।  स्थिर  झाली  गुरूवचनी।  आनंद  पावली  अंत:करणी।  धन्य  म्हणती  गुरूदेवा॥37॥धन्य  धन्य  आपुले  भाग्य।  जीवनी  झाला  भाग्योदय।  जीवनी  भेटला  गुरूदेव।  साक्षात  त्रयमुर्ति  दत्तात्रेय॥38  ॥  ऐसे  आमुचे  गुरू  गुप्त।  भक्ता  देती  आनंद  नित्य।  अखंड  अविरत  साक्षात।  जागृत  त्रिभुवनी  दत्तात्रेय॥39॥  अकोलावासी  जनांचे  ।  भाग्य  किती  थोर  असे।  स्थिर  वसती  गुरू  तेथे।  नित्य  सहवास  भक्त  जना  ॥40॥  जो  विश्वाचा  अधिपती  ।  सर्व  भुवरी  मालकी  त्याची।  जरी  गुप्त  राहीला  जगती।  व्यवहार  सारे  मानवी॥  41॥दत्तकृपा  नामे  सदन।  निर्माण  केले  स्वये  जाण।  सहकुटुंब  स्थिर  होवून।  भक्तांसवे  राम  तेथे॥42॥  गुरूभक्ताचा  दास  होतो।  देवपणाला  विसरतो।  भक्तासाठठ्ठ  नित्य  झटतो।  भक्तरक्षण  ब्रीद  हे॥43॥इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।  विनवी  दासी  अखंड  ।  पंचदशो।  ध्याय  गोड  हा॥44॥श्री  गुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु॥  ॥ 

॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥ 

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