श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 20  वा ॥

॥श्रीगणेशाय  नम  :॥  श्रीसरस्वत्यै  नम  :॥श्रीगुरूभ्यो  नम  :॥जय  जय  श्रीजग्तपिता।  अगाध  आहे  तव  सत्ता।  अलौकिक  तुझी  कृपा  बापा।  भक्ता  तोषवी  दिनरजनी॥1॥तूच  विव्यापक  दत्तात्रया।  सगुणरूप  तुझे  सखया।  त्रयमुर्ति  गुरूराया।  बधण्या  ह्ष्टी  देई  बा॥2॥नरसिंहसरस्वती  रूप  दत्तात्रया।  यतीराज  परब्रम्ह  सदया।  एकमुखी  रामराया।  सहवास  चरणीचा  लाभला  ॥3॥गुरूचरण  सेवाव्रत।  अखंड  घडो  अविरत।  तुझे  नाम  चित्तात।  नित्य  राहो  गुरूराया॥4॥तवचरणी  अर्पिला  देह।  सेवा  करिते  होण्यास  मुक्त।  जीवन  मुक्ती  हे  ध्येय।  जीवनी  तळमळ  गुरूसेवेची॥5॥झाल्या  अनंत  अपराधा।  क्षमा  करावे  मायबापा।  कृपाळू  दयाधना  दिनानाथा।  अनन्य  चरणी  शरण  मी॥6॥श्रीरामचंद्र  यती  गुरूराया।  नको  अंत  बघु  सदया।  साह्य  करी  ग्रंथ  रचाया।  करिते  त्रिवार  प्रार्थना॥7॥कलियुगी  मानवप्राणी।  अहंकारे  तमोगुणी।  स्वार्थवृत्ती  =ेवोनी।  अघोर  कर्म  करिताती॥8॥पुण्यावान  भक्तगणा।  सरंक्षणार्थ  गुरूराणा।  गुप्तरूपे  कलियुगी  जाणा।  नरजन्म  घेतला॥9॥गुप्तरूपे  राहुनी  जाणा।  कार्य  करी  योगीराणा।  रामचंद्र  नामे  भूवरी  जाणा  ।  औदुंबरी  नित्य  वास॥10॥अज्ञ  मानवी  जन।  न  ओळखती  जाण।  ईश्वरी  अवतार  गुरूराया।  त्याची  थोरी  अगाध  किती॥11॥वेळोवेळी  भक्तजना  ।  साक्ष  पटविती  गुरूराणा।  संकटी  रक्षण  करूनी  त्यांना।  गुरूप्रसाद  लाभतसे॥12॥परी  गुरूस्वरूपाची  थोरी।  अघटीत  आहे  भूवरी।  मानवा  भ्रांत  खरोखरी।  न  ओळखी  त्या  स्वरूपी  ॥13॥हा  दोष  नसे  कवणाचा।  फेरा  असे  कर्मगतीचा  ।  समय  येता  भाग्योदयाचा।  सत्य  ओळख  पटतसे॥14॥बावनकशी  सुवर्णास।  सत्यत्व  त्याचे  पटविण्यास।  तप्त  प्रज्वलीत  अग्नीत  ।  जळावे  लागे  धगधगीत॥15॥वर  घणधाव  सोसावे  लागत।  साक्ष  सत्यत्वाची  पटविण्यास।  तैसेच  मानव  प्राण्यास।  गुरूचरण  लाभण्यास॥16॥तळमळ  ।दयी  धगधगीत।  आपत्ती  घाव  सोसावे  लागत।  परी  दोष  न  द्यावा  कवणास।  कर्मगती  श्रेष्=  मानावी॥17॥परि  गुरूचरण  सहवासे।  कर्मगती  शीतल  होतसे।  गुरूचरणीचे  अमृत  नाते।  त्याची  महती  श्रेष्=  जगी॥18॥त्या  कृपा  अमृताची  गोडी।  श्रध्दा  भक्ति  अनुभवे  जोडी।  यास्तव  नितांत  अंतरी।  भक्त  तळमळ  पाहिजे॥19॥त्रिकालज्ञ  त्रयमुर्ति  सद्गुरू।दीनजनानित्यआधारू।शरणागतीकल्पतरू।प्रपंचदाहशांतवीतसे॥20॥जय  जय  करूणाधना  दयाळा।  सर्व  जगाचा  करी  बा  साभांळ।  कलियुगी  संकट  काळ।  रक्षण  करिशी  भक्तांचे॥21॥भक्ति  पाहीजे  निर्मळ।  नसावी  द्वेषभावना  कुटाळ।  प्रकृति  असावी  प्रेमळ।  आदर  असावा  थोरांचा॥22॥नि:स्वार्थपणे  गुरूचरणी।  तीन  असावे  नामस्मरणी।  देह  झिजवावा  परोपकारणी।  निरपेक्षवृत्ती  असावी॥23॥मार्गात  येता  काही  संकट।  दोष  न  द्यावा  कोणाप्रत।  गुरूवचनी  राहोनी  स्थिर।  मार्गक्रमण  करावा॥24॥बोल  न  द्यावा  कवणाशी।  आपुले  कर्म  आपणचि  भोगशी।  हे  जीवा  श्रेष्=  जगती।  गुरूवचनी  धीर  धरी॥25॥गुरूच  तुजसी  तारितील।  गुरूसेवाच  उध्दरील।  गुरूकृपा  जगी  थोर।  गुरूविणा  मुक्ति  नसे॥26॥धन्य  धन्य  गुरूआई।  अज्ञात  बालका  पदरी  घेई।  तुजविण  कोणी  अंगाई।  गाईल  गे  गुरूआई॥27॥  मानवजन्म  या  जगी  देखा।  पुर्वपुण्याईने  प्राप्त  होईगा।  गुरूकृपा  होण्या  सुरेखा।  स्वयेंच  तू  मार्ग  क्रमी  बा॥28  ॥मति  न  व्हावी  भ्रष्ट।  आचरण  नसावे  दुष्ट।  प्रेमभाव  उपजावे  चित्त।  सेवाधर्म  आचरावा॥29  ॥मेणबत्ती  प्रमाणे  सतत।  प्रकाश  द्यावा  जना  नित्य।  स्वये  झिजोनिया  सत्य।  परोपकार  करावा॥30॥  स्वयेच  झिजते  सतत।  जना  सुखविते  नित्य।  विपरीत  न  होई  कवणास।  तैसेच  मानवे  जगावे॥  31॥भारतभूमी  पवित्र।  संताची  ही  खाण।  वसती  सत्पूरूष  गुप्त।  दिनजना  रक्षणार्थ॥32॥व:हाड  प्रांती  तीर्थक्षेत्र।  अनेक  असती  कितीएक।  ॠध्दपूर  नामे  ग्राम  एक  ।  प्रचलीत  नामे  रिध्दपूर  देख  ॥33॥तेथे  सद्गुरूस्वामी  दत्तात्रेय।  गुप्तरूपे  वसति  गुरूराय।  भक्ता  उपदेश  करिती  नित्यचि।  त्रयमुर्ति  कलियुगी॥34॥रिध्दपुर  माहात्म्य  पूर्ण।  क्रमवार  करू  वर्णन।  पुढील  अध्यायी  उपदेश  जाण।  वर्णन  करू  सविस्तर॥35॥गुरूवदनीचे  हे  बोल।  थोर  जगी  अनमोल।  ध्यानी  धरा  श्रध्दा  स्थिर।  विकल्प  नसावा  मानसी॥36॥अंतरज्ञानी  त्रयमुर्ति।  अगाध  त्यांची  भक्तप्रिती।  जाणुनी  कालमहिमा  जगती।  उपदेशिती  भक्तास॥37॥  तो  उपदेश  आहे  थोर।  वर्णू  कशी  मी  पामर।  श्रोते  आपुले  मानस  थोर।  गुरूउपदेश  परिसा  हो॥38॥इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।  विनवी  दासी  अखंड।  विंशो।ध्याय  गोड  हा  ॥39॥       

॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥ 

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