श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 23  वा ॥

॥  श्रीगणेशाय  नम  :  ॥  श्रीसरस्वत्यै  नम  :  ॥  श्रीगुरूभ्यो  नम  :  ॥  जय  जय  श्री  सद्गुरूनाथा।  जगचालका  विनाथा।  वेद  पुराणे  सर्व  श्रुति।  वर्णिती  श्रीगुरूची  महती  ॥  1  ॥  गुरूच  श्रेष्=  सर्व  जगी।  गुरूविणा  नसे  मुक्ति।  व्यर्थ  सारा  खटाटोप।  ज्ञान  पसारा  विद्याभ्यास  ॥  2  ॥  गुरू  मार्गदर्शनाविण  सत्य।  मोल  नसे  त्या  जगी।  ज्ञानेरीत  ज्ञानेदेवे।  गुरूचे  महात्म्य  वर्णियले  ॥  3  ॥  चांगदेवा  उध्दरीले।  गर्वहरण  करूनी।  पटविली  त्यास  गुरूची  महती।  गर्वहरण  केला  क्षणांती  ॥  4  ॥  भिंतीस  चालविले  जगति।  गुरूकृपेची  ही  थोरी।  कलियुगी  पापमती।  जन  चालले  अधोगती  ॥  5  ॥  याकारणे  गुप्तरिती  ।  अवतार  घेती  दत्त  विभुती।  जनकल्याणा  नित्यचि  झटति।  ओळख  न  पटे  कवणाशी  ॥  6  ॥  गुरूकार्याचा  सकळ  वृत्तान्त।  परिसा  श्रोते  सावचित्त।  रामचंद्र  सदनी  नित्य।  जनसेवा  अखंडीत  ॥  7  ॥  गुप्त  उपासना  सत्य।  जगदोध्दार  चालला।  मागील  अध्यायी  श्रोते  सृजना।  केले  सद्भक्तानुभव  श्रवण  ॥  8  ॥  आणिक  भक्तानुभव  कथन।  या  अध्यायी  परिसा  हो।  कैसा  घडला  वृत्तान्त।  परिसावे  होवोनिया  एकाग्रचित्त  ॥  9  ॥  रामटेक  निवासी  सद्भक्त।  श्रीधर  दामले  नामांकित।  होते  शिक्षण  व्यवसायात।  भाग्योदय  त्यांचा  साविीसध  असे  ॥  10  ॥  तेथे  कैसी  गुरूशिष्यपरंपरा।  गुप्तचि  सारा  पसारा।  रामचंद्र  सहवास  घडला।  बालशिष्य  त्या  वेळी  ॥  11  ॥  परी  ओळख  न  पटली  श्रीधरास।  नित्य  घडत  असे  गुरूसहवास।  पुढे  कैसा  परिचय  झाला।  गुरूशिष्य  सहवास  वाढला  ॥  12  ॥  स्नेही  पुत्र  आपत्ती  निमित्त।  श्रध्दाभाव  वाढे  सदोदित।  आधी  होते  गुरूशिष्य  नाते।  तदनंतर  शिष्य  होती  गुरू  साचे  ॥  13  ॥  हा  आहे  अधिकार  थोर।  पुर्वसुकृत  अपरंपार।  जाणीव  नव्हती  गुरूमुर्तिची।  माहिती  नव्हती  अधिकाराची  ॥  14  ॥  परी  अनुभवे  सहजगती।  श्रध्दा  जडली  गुरूपदी।  प्रथम  मनाची  खळबळ।  वृत्ति  होत  असे  चंचळ  ॥  15  ॥  प्रेमभाव  अंतरी  वाढला।  कोणी  जवळचा  आप्त  भेटला।  आपत्ती  जाती  दूर।  भय  वाटले  त्यासी  थोर  ॥  16  ॥  हा  असे  गुरू  अधिकार।  गुप्तरूप  जागृत  भूवर।  पुढे  श्रीधरांचे  अंतर्मन।  गुरूचरणी  झाले  लीन  ॥  17  ॥  प्रपंच  आपत्ती  येता  प्रबळ।  पत्नी  अंतरी  खळबळ।  धावूनि  आले  तात्काळ।  सद्गुरू  राम  सदनी  ॥  18  ॥  अभयदान  दिधले  पत्नीस।  विभूती  झाली  सहाय्यभूत।  व्रुच्र  शक्ति  निघे  पळत।  सत्ता  गुरूंची  पाहून  ॥19  ॥  पूढे  कैसा  धडला  प्रसंग  ऐका।  सहकुटुंब  प्रवास  करिता  देख।  पुत्रास  झपाटी  पिशा।  ज्वर  शरीरी  वाढतसे  ॥  20  ॥  परत  आले  सदनी  तात्काळ।  गुरू  सहाय्य  घेतले  सबळ।  धावूनी  आले  गुरू  सदनी।  अनन्य  शरण  श्रध्देने  ॥  21  ॥  विनवणी  केली  दत्तगुरूस।  स्नेह  उपजला  चित्तास।  स्वर्येच  श्रीगुरू  त्रैलोयाधीश।  पुत्ररक्षणा  धावले  ॥  22  ॥  ह्ष्टी  पडता  त्रयमुर्तिची।  पिशा  बाधा  शीतल  झाली।  उपाय  करिता  सद्भावेसी।  चिरंजीव  पूत्र  जहाला  ॥  23  ॥  अनेक  येता  ऐसे  अनुभव।  गुरूचरणी  जडला  भाव।  जागृत  होउनि  अंतरभाव।  अनुग्रह  व्हावा  वाटत  असे  ॥  24  ॥  प्रश्न  केला  एके  दिनी।  सद्गुरूस  श्रीधरांनी।  अपराध  आमुचे  क्षमा  करूनी।  अनूग्रहीत  आम्हा  करा  हो  ॥  25  ॥  काय  वदती  सद्गुरूनाथ।  योग्य  समय  येता  त्वरीत।  भगवान  दत्तात्रय  सद्गुरूनाथ।  आज्ञा  आम्हा  देतील  ॥  26  ॥  यासी  लोटता  काहि  काळ।  श्रीधरांचा  भाग्यकाळ।  राम  वदती  तात्काळ।  अनुग्रह  घेण्या  योग्य  तुम्ही  ॥27  ॥  अनुग्रहीत  होता  श्रीधर।  आनंदीत  झाले  अंतर।  भय  चिंता  पळाली  दुर।  दत्त  कृपा  होता  थोर  ॥28  ॥  याचे  कसे  प्रत्यंतर।  श्रीधरास  आले  थोर।  एक  अघोरी  शक्ति।  श्रीधराचे  लागली  पाठठ्ठ  ॥  29  ॥  त्या  शक्तिप्रभावाने।  रक्त  उलटी  होई  जोराने।  जर्जर  झाले  शरीर।  चितांक्रांत  कुटुंब  सारे  ॥  30  ॥  उभयतांचा  श्रध्दाभाव।  दत्तगुरूचरणी  अढळ।  धावुनि  आले  तत्काळ।  सद्गुरू  राम  सदनी  ॥  31  ॥  त्रिकालज्ञ  त्रयमुर्ति।  भक्तरक्षणार्थ  जगति।  सहाय्यभूत  झाली  विभूती।  प्राण  वाचले  श्रीधराचे  ॥  32  ॥  एैसे  गुरूकृपेचे  महिमान।  कळीकाळाचे  भय  जाणा।  रक्षण  करिती  सद्गुरूराणा।  निजभक्ता  नित्यचि  ॥33  ॥  दामले  कुटूंब  सुखी  सदनी।  दत्तगुरू  आशिर्वचनी।  प्रपंच  आपत्ती  जाती  पळूनी।  गुरूकृपा  प्रसादे  ॥  34  ॥  पापग्रस्त  कलियुगी।  पुण्यवाना  तारण  जगी।  गुप्तरूपे  राहूनि  योगी।  मार्गदर्शन  भक्तांशी  ॥  35  ॥  हे  आहे  कलियुग।  अधर्म  नितीभ्रष्ट।  पाप  करण्या  प्रवृत्त।  जनलोकी  कल  असे  ॥  36  ॥  परि  भविकजन  अजुनहि।  आहेत  जगी  नरदेही।  त्या  मार्गदर्शन  लवलाही।  सद्गुरू  करिती  स्वयेंचि  ॥  37  ॥  श्रीराम  सद्गुरूनाथ।  भक्तासांभाळीत  नित्य।  याची  प्रचिती  मानवास।  सदोदित  येते  असे  ॥  38  ॥  परि  मानवी  जीवनाची  निती।  मायेचा  पगडा  त्यावरती।  अधर्मे  वर्तती  सदाचि।  दूषण  लाविती  समर्थास  ॥  39  ॥  समर्थाचे  सामर्थ्य।  कोणी  वर्णावे  सत्य।  त्या  अवताराचे  महत्व।  थोर  अनुभवीच  जाणती  ॥  40  ॥  इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।  विनवी  दासी  अखंड।  त्रयोविंशततमोध्याय:  गोड  हा  ॥  41  ॥

      ॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥ 

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