श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 27  वा ॥

॥  श्रीगणेशाय  नम  :  ॥  श्रीसरस्वत्यै  नम  :  ॥  श्रीगुरूभ्यो  नम:।  जय  जय  परात्पर  सद्गुरू।  सर्वेरा  जगदगुरू।  तुजवाचोनी  आधारू।  नसे  कोणी  कलियुगी  ॥  1  ॥  सर्वाधिकार  असता  अंगी।  अलिप्त  राहती  नित्य  योगी।  थोर  शिकवण  या  जगी।  गुरूविण  कोण  देई  ॥  2  ॥  प्रात:काळी  सकाळी।  ध्यान  गुरूचे  निरामयी।  तेजोमय  प्रकाश  उजळी।  अज्ञानतम  दूर  होई  ॥  3  ॥  अखंड  तेवण्या  ती  ज्योत।  भक्तिघृत  नित्यानित्य।  ओतावे  लागे  स्वभक्ता।  प्रकाशमयी  जीवन  होण्या  ॥  4  ॥  तेजोमय  स्वरूप  बघता।  तन्मयता  येत  असे  चित्ता।  नयन  दिपती  दर्शन  होता।  भान  हरपते  भक्ताचे  ॥  5  ॥  आता  तुम्ही  श्रोते  सृजन।  परिसावे  अनुग्रहाचे  महत्व  जाण।  मानव-जीवन  सार्थक  होण्या।  मार्गदर्शन  आवश्यक  असे  ॥  6  ॥  गुरू  मार्गदर्शन  थोर।  अनमोल  आहे  भूवर।  अनुक्रमण्या  क=णि  फार।  सुखशांति  जीवनी  मिळे  ॥  7  ॥  श्रीरामचंद्र  सरस्वती  गुरू।  भक्तकामकल्पतरू।  अवतरले  भूवरू।  नरदेही  कलियुगी  ॥  8  ॥  भक्तअंतरीचा  पाहुनी  भाव।  त्यावरी  गुरूकृपा  वर्षाव।  नित्य  निरंतर  सेवाभाव।  ह्ढ  =ेवा  गुरूचरणी  ॥  9  ॥  माझे  सदगुरू  राम।  भक्तजीवा  आराम।  सर्वसुखाचे  शांतिधाम।  भूवरी  नांदती  ॥  10  ॥  जय  जय  रामा  सद्गुरू।  सर्वाधार  परात्परू।  सानांना  पैलपारू।  करिसी  बा  सहजपणे  ॥  11  ॥  भजता  नित्य  श्रीराम।  जीवनी  मिळतो  आराम।  नित्य  करावा  जिवनी  नियम।  अखंड  गुरूचिंतनाचा  ॥  12  ॥  श्री  गुरूराया  परमप्रकाशा।  अज्ञान  अंध:कार  नाशा।  ज्ञानदीपका  तेजोमया।  शरण  तुम्हा  त्रिवार  ॥13  ॥  आता  प्रार्थना  श्रोतेजना।  श्रवण  करा  हो  भक्तमहिमा।  भक्तअंतरीचा  भाव  जाणा।  अनुग्रहीत  करीत  असे  ॥  14  ॥  मागील  अध्यायी  केले  श्रवण।  गुरू  रामचंद्राचे  स्तवन।  भक्त  अर्पितो  तन-मन-धन।  परब्रह्य  गुरूचरणी  ॥  15  ॥  श्रीकांताच्या  मनी  हेत।  व्हावे  आपण  अनुग्रहीत।  नम्रपणे  विनवीत।  मनोभाव  गुरूपाशी  ॥  16  ॥  रामचंद्र  वचन  देत।  काळ  येता  समीप  सत्य।  राहावे  सदनी  चिंतारहित।  अनुग्रहीत  व्हाल  तुम्ही  ॥  17  ॥  त्या  वचनाची  पूर्तता।  भगवान  दत्तात्रेयांनी  करिता।  शुभसुदिन  तो  उगवता।  स्वर्गसुख  भासले  ॥  18  ॥  चैत्रमासी  दशमी  तिथी।  राम  वदती  भक्ताप्रति।  गुरूपोर्णिमा  आषाढीसी।  अनुग्रहासी  यावे  हो  ॥  19  ॥  अनेक  जन्माची  पुण्याई।  फळा  आली  लवलाही।  भक्तिभावे  पद  प्रक्षाळुनि  ।  शोडषोपचारे  गुरूपूजन  ॥20  ॥  ह्ष्टाह्ष्ट  होता  उभयता।  ह्ष्टि  क्षेप  सद्गुरूंचा।  पुनित  करी  भक्तदेह।  प्रसवीस  चित्त  होतसे  ॥21  ॥  सत्यकथा  गुरूचरित्री।  एके  समयी  नरसिंहसरस्वती।  कथिती  आपुल्या  भक्ताप्रति।  सेवा  औदुंबर  कल्पवृक्षाची  ॥  22  ॥  वृक्ष  होता  वाळलेला।  परिथोर  कैसी  गुरूलीला।  भक्त  लाविला  कसोटीला।  पाणी  घाली  बा  वृक्षासी  ॥  23  ॥  जेथे  भक्तश्रध्दा  अढळ।  तेथे  गुरूकृपा  सबळ।  दिव्यह्ष्टि  ने  उजळ।  तेजोमय  भक्त  होई  ॥  24  ॥  ह्याची  प्रचिती  त्या  काळी।  परीक्षा  बधती  वनमाळी।  भक्त  निजांगे  तो  पाही।  श्रध्दावान  होता  पहा  ॥  25  ॥  येथे  येवढाची  मतितार्थ।  गुरूह्ष्टिचे  महत्व।  जागृत  किती  सत्यत्व।  ह्ष्टिक्षेपे  सजीवत्व।  शुष्ककाष्ठसी  आले  असे  ॥26  ॥  श्रीगुरू  ह्ष्टिक्षेपाने।  शुष्ककाष्ठ  त्वरेने।  पालवी  फुटली  आनंदाने।  गुरूदर्शन  थोर  ते  ॥27  ॥  म्हणून  श्रोते  तुम्ही  सृजन।  प्रपंची  राहूनि  सावधान।  भक्तिभावे  गुरूवचन।  नम्रपणे  पाळा  हो  ॥28  ॥  ऐशा  रिती  रामयती।  सहज  ह्ष्टिने  भक्ताप्रती।  अंतर्मना  उजळती।  ह्ष्टाह्ष्ट  शिकविती  ॥  29  ॥  त्या  ह्ष्टिक्षेपाचे  महत्व।  अधिकारीच  जाणती  नित्य।  अधिकारी  भक्तास।  महति  पटे  त्याची  त्या  ॥  30  ॥  श्रध्दावान  भक्तास।  महत्व  वाटे  त्याचे  त्यास।  ह्ष्टाह्ष्ट  होता  सहज।  अघटित  असे  बोध  तेथे  ॥  31  ॥श्रीरामचंद्र  चरणी  हा  देह।  अर्पूनिया  तत्काळ।  चरणसेवा  सर्वकाळ।  नित्य  घडो  गुरूदेव  ॥  32  ॥  ऐशारिती  भक्तहेत।  पुरविताती  राम  सतत।  भक्त  स्वये  आनंदित।  अनुदिनी  होतसे  ॥33  ॥  वर्णिता  सद्गुरूकृपेची  महति।  श्रवण  करिता  आनंद  किती।  कृतार्थ  तेणे  सद्गती।  निजभक्ता  होतसे  ॥  34  ॥  ऐसे  गुरूकृपेचे  महिमान।  कोण  थोर  गुरूविण।  सद्गुरू  जगत्रयजीवन।  नाथ  दिन  अनाथांचा  ॥  35  ॥  इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।  विनवी  दासी  अखंड।  सप्तविंशेध्याय  गोड  हा  ॥36  ॥

      ॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥ 

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