श्री रामदत्तगुरु चरित्र.....Http://ramdattaguru.org
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श्री  गणेशदत्तगुरूभ्यो  नम  :
श्रीरामगुरू  चरित्र 
  ॥  अध्याय 25  वा ॥

॥  श्रीगणेशाय  नम  :  ॥  श्रीसरस्वत्यै  नम  :  ॥  श्रीगुरूभ्यो  नम  :  ॥  नमो  जी  जगपालका।  अविनाशा  अनंतरूपका।  गुप्तरूपे  राहुनी  देखा।  अवतारकार्य  कलियुगी  ॥1  ॥  जैसे  कमल  पंकामध्ये।  मकरंद  चाटती  भृंगे।  मलीनता  न  लागू  देती  अंगे।  तैसेच  आमुचे  गुरू  प्रपंची  ॥  2  ॥  श्रीरामचंद्राची  जीवनगाथा।  अनुभवीच  कथिती  देखा।  श्रवण  करिता  भावपूर्णता।  धन्य  धन्य  अवतार  जगी  ॥  3  ॥  त्यांच्याच  कृपाप्रसादाने।  प्रतिभाशक्ति  जागृत  होणे।  साक्षात्कार  गुप्तपणे।  सात्विक  गुण  अंगी  असणे  ॥  4  ॥  श्रीकांत  अत्रे  नामे।  अनुभव  कथिती  आनंदाने।  गुरूमुर्तिस  भक्तिने।  आळविले  गतजन्मी  ॥  5  ॥  त्या  पूर्वसुकृतेकरून।  गुरूमुर्तिस  आपण  होवुन।  अनुग्रहीत  शिष्यालागुन।  या  जन्मी  करावे  लागले  ॥  6  ॥  याचे  वर्णन  सविस्तर।  श्रवण  करा  श्रोते  चतुर।  गुरूकृपे  निरंतर।  वर्णन  करू  सृजन  हो  ॥  7  ॥  बालपणापासोनी।  सांभाळीले  त्रयमुर्तिनी।  सुखी  केले  मानव  जीवनी।  सावध  केले  प्रपंची  ॥  8  ॥  गुरूरक्षणाची  कथा।  गुप्तरूपे  स्वभक्ता।  त्रयमुर्तिनी  भ्रमण  करिता।  प्राण  वाचविले  बालपणी  ॥  9  ॥  गुरू  गौप्यरूपे  कलियुगी।  अवतारकार्य  करिती  जगी।  कृपार्थ  शिष्य  जीवनी।  गुरूकृपे  झाले  हो  ॥  10  ॥  बालपणी  गंडांतर  ।  निवारती  गुरू  थोर।  गुप्तरूपे  अवनीवर।  दत्तावतार  ख्यात  जगी  ॥  11  ॥  श्रीगुरूचरणाची  भती  ।  बोलवेना  वाचे  जगति  ।  नयनी  बघता  दिव्यमुर्ति  ।  कं=  दाटतो  श्रध्देने  ॥  12  ॥  आनंदाश्रु  येती  नयनी  ।  स्पर्श  पदी  करद्वयानी  ।  नतमस्तक  गुरूचरणी  ।  आनंदवृत्ति  अंत:करणी  ॥  13  ॥  ह्ष्टीभावे  आनंद  चित्ता  ।  ह्ष्टाह्ष्ट  होता  उभयता  ।  तो  आनंदबोध  होता  ।  वर्णविना  शब्दे  भता  ॥  14  ॥  संत  दयेचे  सागर  ।  सर्व  सुखाचे  माहेर  ।  भतांसाठठ्ठ  निरंतर।  जीव  व्याकुळ  तयांचा  ॥  15  ॥  गुरूभक्तिचे  भुकेले।  शरणांगता  उध्दरीले।  श्रध्दाळूंना  अभय  दिले।  सांभाळीले  दु:खितांना  ॥  16  ॥  काय  वदति  शिष्य  ।  श्रीरामचंद्राचे  व्यतिमत्व  ।  श्रेष्=  किती  कलियुगांत  ।  अष्टपैलुच  असती  ते  ॥  17  ॥  तेज  किती  स्वयंप्रकाशीत  ।  कांति  असे  दैदिप्यमान  ।  स्वस्तुति  ना  आवडे  कदा  ।  अतिरेक  ना  आवडे  ॥  18  ॥  संत  स्वयेच  चंदन  ।  जनकल्याण  नित्य  झिजून  ।  स्वकर्मे  सुगंध  देवून  ।  सुखविती  जन  लोक  ॥  19  ॥  श्रीकांताची  चरणी  आस  ।  सदैव  चिंता  दत्तात्रेयास  ।  याचा  कैसा  वृत्तान्त  ।  परिसावा  सृजन  हो  ॥  20  ॥  इंदूर  ग्रामी  बालपणी  ।  पडले  दोन  रूळांमध्ये  ।  पाच  मिनिटांच्या  अवधीने  ।  गाडी  आली  रूळांवरी  ॥  21  ॥  गुप्तरूपे  धावूनि  खास  ।  वाचविले  स्वभतास  ।  अभयदान  देउनि  त्यास  ।  कृतार्थ  केले  या  जन्मी  ॥22  ॥  बालपणाची  वृत्ति।  सदैव  खेळण्याची  वृत्ति।  चिंचा  बोरे  आवडती।  हा  नियम  निसर्गाचा  ॥23  ॥  एकदा  चढता  बोरवृक्षी।  तोल  जाउनि  झट्दिशी।  कपाळमोक्ष  ते  दिवशी।  पुन्हा  वाचविले  सद्गुरूंनि  ॥  24  ॥  संतकृपेची  अगाधता।  अनुभवेचि  वर्तता।  आनंद  होई  मानवी  चित्ता।  प्रेमभाव  कंठठ्ठ  दाटे  ॥  25  ॥  श्रीरामचंद्रा  तुझा  महिमा।  वर्णिता  आनंद  होई  मना।  अनुभवाचा  आनंद  जाण।  कं=  दाटे  भक्तिभावे  ॥  26  ॥  तदनंतरचे  कथन।  ऐका  तुम्ही  सृजन  हो।  गुरू  दत्तात्रय  सगुण।  भक्तासाठठ्ठ  काय  न  करिती  ॥  27  ॥  रामचंद्राची  योग्यता।  गुरूचरणांची  तन्मयता।  आनंद  होतो  चित्ता।  तो  न  शब्दे  वर्णवे  ॥  28  ॥  अनेक  रूपे  धरूनी  देखा।  भक्तास्तव  जगत्पिता।  ब्रम्हस्वरूपा  एकमुखा।  जगचालका  अविनाशा  ॥  29  ॥  जय  जय  परात्परा  सदगुरू।  सर्व  जगा  तुचि  आधारू।  कदा  नुपेक्षी  निर्धारू।  शरणागत  शिष्यासी  ॥  30  ॥  श्रीरामचंद्रा  दत्तगुरू।  दीनजना  तुचि  कल्पतरू।  रक्षिसी  बापा  निरंतरू।  तूच  दयेचा  सागरू  ॥  31  ॥  देखुनी  भक्तनिर्धार।  तया  रक्षितो  सर्वेर।  ऐसा  तुझा  महिमा  थोर।  ह्याचा  अनुभव  येथ  असे  ॥  32  ॥  साक्षात  स्वयंभू  जेथे।  मानवा  काय  उणे  तेथे।  श्रध्दा  भक्तिभाव  जेथे।  नित्य  वसति  त्रयमुर्ति  ॥  33  ॥  त्रयमुर्ति  सगुणस्वरूपा।  धन्य  धन्य  हा  अवतार  बापा।  भाविकजना  रक्षणार्था  ।  गुप्तरूपा  धरियेले  ॥  34  ॥  स्वभक्ता  घेता  पदरी।  चिंता  वाही  निरंतरी।  भिवीसरूपे  अवतारी।  धावे  भक्त  कार्या  झडकरी  ॥  35  ॥  पत्नी  असता  गरोदर।  प्रसंग  आला  दुर्धर।  घरात  नव्हते  आप्तजन।  पत्नी  प्रकृति  बिघडली  ॥  36  ॥  प्रसुतिची  वेळ  घोर।  स्त्री  जातीस  कठठ्ठण  फार।  यात  झाला  असे  ज्वर।  प्रकृति  क्षीण  होतसे  ॥  37  ॥  काय  केले  गुरूवरे।  निरोप  देउनि  त्वरे।  तज्ञास  त्वरीत  आणिले।  गंडातर  निवारले  ॥  38  ॥  कोणी  बोलाविले  डॉटरांशी।  न  कळे  कोणाशी।  आश्चर्य  वाटे  सकळांसी।  गुरूकृपा  ती  हो  ॥  39  ॥  श्रीकांताच्या  पत्नीची।  प्रसुति  झाली  सहजचि।  डॉटरांनी  शेवटी।  औषधोपचार  लिहुन  दिला  ॥  40  ॥  असा  आहे  सर्वेर।  सर्व  जगाचा  आधार।  भक्तरक्षणा  धावे  सत्वर।  गजेंद्रमोक्षसमान  ॥  41  ॥  ऐसा  गुरूकृपेचा  महिमा।  थोर  जगति  भक्त  जाणा।  भक्तासाठठ्ठ  गुरूराणा।  काय  न  करी  या  जगी  ॥  42  ॥  भक्ती  पाहिजे  नि:स्वार्थ।  परमार्थी  रमावे  चित्त।  तेणेच  हा  जगवीसाथ।  भक्तासाठठ्ठ  नित्य  झटे  ॥  43  ॥  जय  जय  करूणाधना।  कैसा  वर्णु  तव  महिमा।  तुझी  कृपा  होता  जाणा।  काय  उणे  या  भूवरी  ॥  44  ॥  याचा  प्रत्यय  श्रीकांतास।  क्षणोक्षणी  सदैव  येत।  पाठठ्ठराखे  सद्गुरूनाथ।  सदैव  सांभाळीत  ॥  45  ॥  भतीमार्ग  दिसण्या  सोपा।  आचरण्या  कठठ्ठण  देखा।  सुलभरिती  भक्तनिका।  आत्मसुखा  पावतो  ॥  46  ॥  परी  तन-मन-धन।  गुरूचरणी  तीन।  नित्य  भावे  स्मरता  चरण।  चिंता  वाहे  सद्गुरू  ॥47  ॥  जो  स्वये  निराकार।  दिनजना  आधार।  अवतरोनी  भूवर।  गुप्तकार्य  करीत  असे  ॥  48  ॥  या  नंतरचा  अनुभव।  श्रोते  परिसा  अभिनव।  नितांत  श्रध्दाभाव।  गुरूमाहात्म्य  श्रवण  करा  ॥  49  ॥  इति  श्रीरामगुरूचरित्र।  परिसा  रसाळ  इक्षुदंड।विनवी  दासी  अखंड।  पंचविंशततमोध्याय:।  गोड  हा  ॥41  ॥

      ॥श्रीगुरूदत्तात्रेयार्पणमस्तु  ॥ 
॥अ  व  धू  त  चिं  त  न  श्री  गु  रू  दे  व  द  त्त  ॥

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